खुबसूरत मिसाल है शहर-ए-बनारस में होने वाला अगहनी जुमा
वाराणसी- धार्मिक एकता को हम ‘सांझी विरासत’ के तौर पर देखते है, जहा आपसी मुहब्बत और भाईचारगी धर्म और जाति बंधन से ऊपर है। कई ऐसे उदहारण आज भी हर एक शहर में ज़िंदा मिसाल है जो इस सांझी विरासत को दिखाते है। साझी विरासत हमारे मुल्क हिन्दुस्तान का वो खुबसूरत नगीना है, जिसने हमारे मुल्क को दुनिया के नक़्शे पर चमका रखा है।
यही धार्मिक
एकता को हम ‘सांझी विरासत’ के तौर पर देखते है, जहा आपसी
मुहब्बत और भाईचारगी धर्म और जाति बंधन से ऊपर है। कई ऐसे उदहारण आज भी हर एक शहर
में ज़िंदा मिसाल है जो इस सांझी विरासत को दिखाते है। साझी विरासत हमारे मुल्क
हिन्दुस्तान का वो खुबसूरत नगीना है, जिसने हमारे
मुल्क को दुनिया के नक़्शे पर चमका रखा है।
जब बात आपसी
एकता और भाईचारगी यानी सांझी विरासत की हो तो शहर बनारस इसका एक बड़ा उदहारण है।
शहर बनारस में तो तानी बाने का रिश्ता होता है। जहाँ तानी का पूरा कारोबार हिन्दू
समुदाय के हाथो में है, वही बाने यानी पक्के माल का
कारोबार मुस्लिम समुदाय के हाथो में है। बिना तानी के बाना तैयार नही होगा, यह बात जगजाहिर
है। जहाँ लोग इस रिश्ते को गंगा जमुनी तहजीब कहते है, वही बनारस के
लिए यह रिश्ता तानी बाने का रिश्ता है। बिस्मिल्लाह के शहनाई की धुन इस शहर में
सिर्फ मुहर्रम के मौके पर लोगो को आशुरा का गम ही नही बयान करती थी। बल्कि शहर
बनारस की बड़ी मंदिरों की आरती भी उसी बिस्मिल्लाह की धुन सजाती थी।
नमाज़ पढ़ कर नमाज़ी हिन्दू भाइयों से गन्ने खरीद कर घर लेकर जाते है
आज भी यह शहर
बनारस डेढ़ सौ बरस से ज्यादा पुरानी अगहनी जुमे की नमाज़ जैसी सांझी विरासत अपने
अन्दर लेकर बैठा है। यहाँ आज भी लाट सरैया की मस्जिद के बीचो बीच मंदिर अपनी ही
खूबसूरती देता है। आज हम आपको बनारस के सांझी विरासत के प्रतीक अगहनी जुमे के
सम्बन्ध में बता रहे है, जिसको केवल और केवल बनारस
शहर में ही पढ़ा जाता है। एक ऐसी जुमे की नमाज़ जो साल में एक बार अगहन के महीने में
मुस्लिम समुदाय के लिए अदा किया जाता है। इस दिन ‘मुर्री बंद’ (काम बंद) भी रहती
है। सांझी विरासत की यह जिंदा मिसाल पिछले 450 से अधिक वर्षो
से शहर बनारस में आज भी देखने को मिलती है।
तो शहर-ए-बनारस
में होने वाला “अगहनी जुमा” मुहब्बत, मेल-जोल और
आपसी भाईचारे का चमकता हुआ वो मिसाल है जिसे देख आपका दिल खुद कह उठेगा “वाह....., इसे कहते है
साझी विरासत।” बनारस में होने वाला ये जुमा बेहद चर्चित भी है। पुरे दुनिया में
अगहनी जुमा की विशेष नमाज़ सिर्फ शहर-ए-बनारस में मनाया जाता है, जिसको सांझी
विरासत की जीती जागती मिसाल दुनिया कहती है। ये विशेष नमाज़ हिंदी के माह अगहन जिसे
मार्गशीष भी कहते है में पड़ने वाले पहले जुमे के रोज़ पढ़ी जाती है।
सरदार हाजी
मोइनुद्दीन उर्फ कल्लू हाफिज़ के अनुसार हमे यह मालुम हुआ कि अगहन के इस पवित्र
महीने में पूरा बुनकर समाज अगहनी जुमे की नमाज हर साल ईदगाह में अदा करता है। ये
भी मालुम हुआ कि अगहनी जुमे का इतिहास बहुत ही कदीमी(पुराना) है। ये सिलसिला लगभग 452 साल पहले से चला आ रहा है।
हमने उन से
अगहनी जुमे के मुताल्लिक बात शुरू किया तो उन्होंने बताया कि उस वक़्त मुल्क के
हालात ठीक नहीं थे। किसान तबका परेशान था क्योकि बारिश नही हो रही थी। बारिश न
होने के कारण खेती नही हो पा रही थी। मुल्क में अकाल की स्थिति पड़ गई थी। तब बुनकर
समाज ने अपना कारोबार बंद कर इकठ्ठा हो कर अगहन के महीने में ईदगाह में नमाज़ अदा
किया और अल्लाह से किसान भाइयो के लिए दुआ किया। इसके बाद अल्लाह का करम हुआ और जम
कर बारिश हुई। किसानो में ख़ुशी की लहर दौड़ गयी। तब से ये परंपरा को बुनकर
बिरादराना तंजीम बाईसी निभा रही है।
बाईसी के सदस्य और पार्षद हाजी ओकास अंसार ने बताया कि ये अगहनी जुमा की नमाज़ गंगा जमुनी तहजीब की एक जीती जागती मिसाल है। सदियो पहले जब मुल्क के हालात ख़राब थे, सभी वर्ग के लोग परेशान और बदहाल थे, तब उस बदहाली और परेशानी को दूर करने के लिए बुनकर समाज के लोग ‘मुर्री बंद’ कर ईदगाह में नमाज़ अदा करने जुटे और उन्होंने दुआए किया। दुआ को असर हुआ और चारो तरफ खुशहाली आई। जिसके बाद किसान और बुनकर दोनों के कारोबार में बरक्कत हुई।
ये एक परंपरा
बन गई और हर वर्ष अगहन के महीने में ‘मुर्री बंद’ कर अगहनी जुमे की नमाज़ होती है।
इस नमाज़ के दिन किसान भाई बरकत के लिए खुद की उगाई हुई गन्ने की फसल लेकर आते है
और दूकान लगाते है। ये दुकाने हिन्दू भाइयो की होती है और नमाज़ पढ़ कर निकलने वाले
नमाज़ी इस गन्ने को खरीद कर घर लेकर जाते है। यही है हमारे मुल्क हिंदुस्तान की
गंगा जमुनी तहजीब यानि साझी विरासत।
![]() |
| आगहनी जुमा पर एक विडिओ देखे |
दुआख्वानी के
वक्त दुकानदार भी ऐसे दिखाई देते है जैसे वह भी प्रार्थना कर रहे हो। इस प्रकार की
मिसाले दुनिया में बहुत कम दिखाई देती है मगर हमारे मुल्क हिन्दुस्तान में ये आज
भी कायम है और इतना नहीं शहर-ए-बनारस में ये हर कदम पर मिलती है जिसे गंगा जमुनी
तहजीब भी कहते है। बुजुर्गो की परम्परा को पीढ़ी दर पीढ़ी चलाने वाले और मुहब्बत को
आज भी कायम रखने वाले और सांझी वरासत की इस मिसाल को आज भी सजो कर रखने वालो को एक
सलाम तो बनता है।
संतोष कुशवाहा

टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें